Monday, November 21, 2011

गुर्वष्टकम् |Lyrics of Gurvashtakam

शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं,
यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||१||

1. यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?

कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं,
गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||२||

2. सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?

षड़ंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या,
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||३||

3. वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?

विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः,
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||४||

4. जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उनका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो सदगुणों से क्या लाभ?

क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः,
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||५||

5. जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इस सदभाग्य से क्या लाभ?

यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्,
जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||६||

6. दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगांतरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-एश्वर्य हस्तगत हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तभाव न रखता हो तो इन सारे एशवर्यों से क्या लाभ?

न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ,
न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||७||

7. जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, स्त्री-सुख और धनोभोग से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो मन की इस अटलता से क्या लाभ?

अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये,
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||८||

8. जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी वह मन आसक्त न हो पाये तो इन सारी अनासक्त्तियों का क्या लाभ?

गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही,
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही |
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसंज्ञं,
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ||९||

9. जो यति, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को संप्राप्त कर लेता है यह निश्चित है |

श्रीमद आद्य शंकराचार्यविरचितम्

वेदसार शिवस्तव:|Lyrics of Vedsaar Shivstav

आदिगुरू श्री शंकराचार्य द्वारा रचित यह शिवस्तव वेद वर्णित शिव की स्तुति प्रस्तुत करता है। शिव के रचयिता, पालनकर्ता एव विलयकर्ता विश्वरूप का वर्णन करता यह स्तुति संकलन करने योग्य है।

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं
गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्

(हे शिव आप) जो प्राणिमात्र के स्वामी एवं रक्षक हैं, पाप का नाश करने वाले परमेश्वर हैं, गजराज का चर्म धारण करने वाले हैं, श्रेष्ठ एवं वरण करने योग्य हैं, जिनकी जटाजूट में गंगा जी खेलती हैं, उन एक मात्र महादेव को बारम्बार स्मरण करता हूँ|

महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्

हे महेश्वर, सुरेश्वर, देवों (के भी) दु:खों का नाश करने वाले विभुं विश्वनाथ (आप) विभुति धारण करने वाले हैं, सूर्य, चन्द्र एवं अग्नि आपके तीन नेत्र के सामान हैं। ऎसे सदा आनन्द प्रदान करने वाले पञ्चमुख वाले महादेव मैं आपकी स्तुति करता हूँ।

गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं
गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्

(हे शिव आप) जो कैलाशपति हैं, गणों के स्वामी, नीलकंठ हैं, (धर्म स्वरूप वृष) बैल की सवारी करते हैं, अनगिनत गुण वाले हैं, संसार के आदि कारण हैं, प्रकाश पुञ सदृश्य हैं, भस्मअलंकृत हैं, जो भवानिपति हैं, उन पञ्चमुख (प्रभु) को मैं भजता हूँ।

शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले
महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप

हे शिवा (पार्वति) पति, शम्भु! हे चन्द्रशेखर! हे महादेव! आप त्रीशूल एवं जटाजूट धारण करने वाले हैं। हे विश्वरूप! सिर्फ आप ही स्मपुर्ण जगद में व्याप्त हैं। हे पूर्णरूप आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों।
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं
निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्

हे एकमात्र परमात्मा! जगत के आदिकारण! आप इक्षारहित, निराकार एवं ॐकार स्वरूप वाले हैं। आपको सिर्फ प्रण (ध्यान) द्वारा ही जान जा सकता है। आपके द्वारा ही सम्पुर्ण सृष्टी की उतपत्ति होती है, आपही उसका पालन करते हैं तथा अंतत: उसका आप में ही लय हो जाता है। हे प्रभू मैं आपको भजता हूँ।

न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायु-
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे

जो न भुमि हैं, न जल, न अग्नि, न वायु और न ही आकाश, – अर्थात आप पंचतत्वों से परे हैं। आप तन्द्रा, निद्रा, गृष्म एवं शीत से भी अलिप्त हैं। आप देश एव वेश की सीमा से भी परे हैं। हे निराकार त्रिमुर्ति मैं आपकी स्तुति करता हूँ।

अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्
हे अजन्मे (अनादि), आप शाश्वत हैं, नित्य हैं, कारणों के भी कारण हैं। हे कल्यानमुर्ति (शिव) आप ही एक मात्र प्रकाशकों को भी प्रकाश प्रदान करने वाले हैं। आप तीनो अवस्ताओं से परे हैं। हे आनादि, अनंत आप जो कि अज्ञान से परे हैं, आपके उस परम् पावन अद्वैत स्वरूप को नमस्कार है।

नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥
हे विभो, हे विश्वमूर्ते आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे सबको आनन्द प्रदान करने वाले सदानन्द आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे तपोयोग ज्ञान द्वारा प्राप्त्य आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे वेदज्ञान द्वारा प्राप्त्य (प्रभु) आपको नमस्कार है, नमस्कार है।

प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः

हे त्रिशूलधारी ! हे विभो विश्वनाथ ! हे महादेव ! हे शंभो ! हे महेश ! हे त्रिनेत्र ! हे पार्वतिवल्लभ ! हे शान्त ! हे स्मरणिय ! हे त्रिपुरारे ! आपके समक्ष न कोई श्रेष्ठ है, न वरण करने योग्य है, न मान्य है और न गणनीय ही है।

शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि

हे शम्भो! हे महेश ! हे करूणामय ! हे शूलपाणे ! हे गौरीपति! हे पशुपति ! हे काशीपति ! आप ही सभी प्रकार के पशुपाश (मोह माया) का नाश करने वाले हैं। हे करूणामय आप ही इस जगत के उत्तपत्ति, पालन एवं संहार के कारण हैं। आप ही इसके एकमात्र स्वामि हैं।

त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन्

हे चराचर विश्वरूप प्रभु, आपके लिंगस्वरूप से ही सम्पुर्ण जगत अपने अस्तित्व में आता है (उसकी उत्तपत्ती होती है), हे शंकर ! हे विश्वनाथ अस्तित्व में आने के उपरांत यह जगत आप में ही स्थित रहता है – अर्थात आप ही इसका पालन करते हैं। अंतत: यह सम्पुर्ण श्रृष्टी आप में ही लय हो जाती है।

Friday, November 18, 2011

शिवाष्टकम | Lyrics of Shivashtakam

शिव के प्रशंसा में अनेकों अष्टकों की रचना हुई है जो शिवाष्टक, लिंगाष्टक, रूद्राष्टक, बिल्वाष्टक जैसे नामों से प्रसिद्ध हैं। शिवाष्टकों की संख्या भी कम नहीं है। प्रस्तुत शिवाष्टक आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रचित है। आठ पदों में विभक्त यह रचना परंब्रह्म शिव की पुजा एक उत्तम साधन है ।

तस्मै नम: परमकारणकारणाय , दिप्तोज्ज्वलज्ज्वलित पिङ्गललोचनाय ।
नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय , ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नम: शिवाय ॥ 1 ॥
जो (शिव) कारणों के भी परम कारण हैं, ( अग्निशिखा के समान) अति दिप्यमान उज्ज्वल एवं पिङ्गल नेत्रोंवाले हैं, सर्पों के हार-कुण्डल आदि से भूषित हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि को भी वर देने वालें हैं – उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।

श्रीमत्प्रसन्नशशिपन्नगभूषणाय , शैलेन्द्रजावदनचुम्बितलोचनाय ।
कैलासमन्दरमहेन्द्रनिकेतनाय , लोकत्रयार्तिहरणाय नम: शिवाय ॥ 2 ॥

जो निर्मल चन्द्र कला तथा सर्पों द्वारा ही भुषित एवं शोभायमान हैं, गिरिराजग्गुमारी अपने मुख से जिनके लोचनों का चुम्बन करती हैं, कैलास एवं महेन्द्रगिरि जिनके निवासस्थान हैं तथा जो त्रिलोकी के दु:ख को दूर करनेवाले हैं, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।

पद्मावदातमणिकुण्डलगोवृषाय , कृष्णागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताय ।
भस्मानुषक्तविकचोत्पलमल्लिकाय , नीलाब्जकण्ठसदृशाय नम: शिवाय ॥ 3 ॥

जो स्वच्छ पद्मरागमणि के कुण्डलों से किरणों की वर्षा करने वाले हैं, अगरू तथा चन्दन से चर्चित तथा भस्म, प्रफुल्लित कमल और जूही से सुशोभित हैं ऐसे नीलकमलसदृश कण्ठवाले शिव को नमस्कार है ।

लम्बत्स पिङ्गल जटा मुकुटोत्कटाय , दंष्ट्राकरालविकटोत्कटभैरवाय ।
व्याघ्राजिनाम्बरधराय मनोहराय , त्रिलोकनाथनमिताय नम: शिवाय ॥ 4 ॥

जो लटकती हुई पिङ्गवर्ण जटाओंके सहित मुकुट धारण करने से जो उत्कट जान पड़ते हैं तीक्ष्ण दाढ़ों के कारण जो अति विकट और भयानक प्रतीत होते हैं, साथ ही व्याघ्रचर्म धारण किए हुए हैं तथा अति मनोहर हैं, तथा तीनों लोकों के अधिश्वर भी जिनके चरणों में झुकते हैं, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।

दक्षप्रजापतिमहाखनाशनाय , क्षिप्रं महात्रिपुरदानवघातनाय ।
ब्रह्मोर्जितोर्ध्वगक्रोटिनिकृंतनाय , योगाय योगनमिताय नम: शिवाय ॥ 5 ॥

जो दक्षप्रजापति के महायज्ञ को ध्वंस करने वाले हैं, जिन्होने परंविकट त्रिपुरासुर का तत्कल अन्त कर दिया था तथा जिन्होंने दर्पयुक्त ब्रह्मा के ऊर्ध्वमुख (पञ्च्म शिर) को काट दिया था, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।

संसारसृष्टिघटनापरिवर्तनाय , रक्ष: पिशाचगणसिद्धसमाकुलाय ।
सिद्धोरगग्रहगणेन्द्रनिषेविताय , शार्दूलचर्मवसनाय नम: शिवाय ॥ 6 ॥

जो संसार मे घटित होने वाले सम्सत घटनाओं में परिवर्तन करने में सक्षम हैं, जो राक्षस, पिशाच से ले कर सिद्धगणों द्वरा घिरे रहते हैं (जिनके बुरे एवं अच्छे सभि अनुयायी हैं); सिद्ध, सर्प, ग्रह-गण एवं इन्द्रादिसे सेवित हैं तथा जो बाघम्बर धारण किये हुए हैं, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।

भस्माङ्गरागकृतरूपमनोहराय , सौम्यावदातवनमाश्रितमाश्रिताय ।
गौरीकटाक्षनयनार्धनिरीक्षणाय , गोक्षीरधारधवलाय नम: शिवाय ॥ 7 ॥

जिन्होंने भस्म लेप द्वरा सृंगार किया हुआ है, जो अति शांत एवं सुन्दर वन का आश्रय करने वालों (ऋषि, भक्तगण) के आश्रित (वश में) हैं, जिनका श्री पार्वतीजी कटाक्ष नेत्रों द्वरा निरिक्षण करती हैं, तथा जिनका गोदुग्ध की धारा के समान श्वेत वर्ण है, उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।

आदित्य सोम वरुणानिलसेविताय , यज्ञाग्निहोत्रवरधूमनिकेतनाय ।
ऋक्सामवेदमुनिभि: स्तुतिसंयुताय , गोपाय गोपनमिताय नम: शिवाय ॥ 8 ॥

जो सूर्य, चन्द्र, वरूण और पवन द्वार सेवित हैं, यज्ञ एवं अग्निहोत्र धूममें जिनका निवास है, ऋक-सामादि, वेद तथा मुनिजन जिनकी स्तुति करते हैं, उन नन्दीश्वरपूजित गौओं का पालन करने वाले शिव जी को नमस्कार करता हूँ।

Saturday, November 12, 2011

श्रीगणपतिस्तोत्रं | Lyrics of Ganeshstotram

।। संकटनाशनगणेशस्तोत्रम् ।।

श्रीगणेशाय नम: । नारद उवाच ।

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम् ।।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु:कामार्थसिद्धये ।।१ ।।

प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम् ।।
तृतीयं कृष्णपिङ्ाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम् ।।२ ।।

लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च ।।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम् ।।३ ।।

नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम् ।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम् ।।४ ।।

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं य: पठेन्नर: ।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं प्रभो ।।५ ।।

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान् मोक्षार्थी लभते गतिम् ।।६ ।।

जपेत् गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासै: फलं लभेत् ।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशय: ।।७ ।।

अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा य: समर्पयेत् ।
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादत: ।।८ ।।

इति श्री नारदपुराणे संकटविनाशनं श्रीगणपतिस्तोत्रं संपूर्णम् ।

Monday, November 7, 2011

दुर्गा सूक्तम् | Lyrics of Durga Suktam

जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो निदहाति वेदः ।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुम् दुरितात्यग्निः ॥१॥

तामग्निवर्णाम् तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीम् कर्मफलेषु जुष्टाम् ।
दुर्गाम् देवीम् शरणमहम् प्रपद्ये सुतरसि तरसे नमः ॥२॥

अग्ने त्वम् पारया नव्यो अस्मान् स्वस्तिभिरिति दुर्गाणि विश्वा ।
पूश्च पृथ्वी बहुलान उर्वी भवा तोकाय तनयाय शंयोः ॥३॥

विश्वानि नो दुर्गहा जातवेदस्सिन्धुम् न नावा दुरितातिपर्षि ।
अग्ने अत्रिवन्मनसा गृणानोऽस्माकम् बोधयित्वा तनूनाम् ॥४॥

पृतनाजिताम् सहमानमुग्रमग्नीम हुवेम परमाथ्सधस्थात् ।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा क्षामद्देवो अतिदुरितात्यग्निः ॥५॥

प्रत्नोषिकमीड्यो अध्वरेषु सनाच्च होता नव्यश्च सथ्सि ।
स्वांचाग्ने पिप्रयस्वास्मभ्यम् च सौभाग्यमायजस्व ॥६॥

गोभिर्जुष्टमयुजोनिषित्क्तम् तवेन्द्र विष्णोरनुसंचरेम ।
नाकस्य पृष्ठमभिसंवसानो वैष्णवीम् लोक इह मादयन्ताम् ॥७॥

कात्यायनाय विद्महे कन्यकुमारी धीमहि।
तन्नो दुर्गिः प्रचोदयात् ॥

जगदानन्दकारक । Lyrics of JagadAnandkArak

जय जानकी प्राणनायक ॥

गगनाधिप सत्कुलज राजराजॆश्वर
सुगुणाकर सुरसॆव्य भव्यदायक ॥१॥

अमरतारकनिचय कुमुदहित परिपूर्ण अनघ सुरासुरपूज
दधिपयॊधिवासहरण सुन्दरतरवदन सुधामय वचॊवृन्द
गॊविन्द सानन्द मावर जराप्त शुभकरानॆक ॥२॥

निगम नीरजामृतजपॊषका निमिशवैरि वारिदसमीरण
खगतुरङ्ग सत्कविहृदालयागणित वानराधिपनताङ्घ्रियुग ॥३॥

इन्द्रनीलमणिसन्निभापघन चन्द्रसूर्यनयन अप्रमॆय
वागीन्द्रजनक सकलॆश शुभ्रनागॆन्द्रशयन शमनवैरि सन्नुत ॥४॥

पादविजितमौनिशाप सवपरिपालवर मन्त्रग्रहणलॊल
परमशान्तचित्त जनकजाधिप सरॊजभववरदाखिल ॥५॥

सृष्टिस्थित्यन्त्यकार अमित कामितफलद असमानगात्र
शचीपतिसुताब्धि मदहर अनुरागरागराजित कथासारहित ॥६॥

सज्जनमानसाब्धिसुधाकर कुसुमविमान सुरसारिपुकराब्जलालितचरण
अवगुणासुरगणमदहरण सनातन अजनुत ॥७॥

ॐकारपञ्जरकीर पुरहर सरॊजभव कॆशवादिरूप
वासवरिपुजनकान्तक कलाधराप्त करुणाकर शरणागतजनपालन
सुमनॊरमण निर्विकार निगमसारतर ॥८॥

करधृतशरजालासुरमदापहरण अवनीसुर सुरवनकवीन
बिलजमौनिकृतचरित्रसन्नुत श्रीत्यागराजनुत ॥९॥

पुराणपुरुष नृवरात्मज अश्रितपराधीन करविराधरावणविरावण
अनघपराशरमनॊहर विकृतत्यागराजसन्नुत ॥१०॥

अगणितगुण कनकचॆल सालविडलन अरुणाभसमानचरण
अपारमहिम अद्भुतसुकविजनहृत्सदन सुरमुनिगणविहितकलश
नीरनिधिजारमण पापगजनृसिंहवर त्यागराजाधिनुत ॥११॥

वन्दॆ मातरम् । Lyrics of Vande Mataram With Translation

वन्दॆ मातरमम् - बङ्किञ्चन्द्र छट्टॊपाध्याय


सुजलाम् सुफलाम् मलयजशीतलाम्
सस्यश्यामलाम् मातरम् ॥

शुभ्रज्यॊत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशॊभिनीम्
सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम्
सुखदाम् वरदाम् मातरम् ॥१॥

कॊटिकॊटि कण्ठ कलकल निनादकरालॆ
कॊटिकॊटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
अबला कॆन मा ऎत बलॆ
बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम् ॥२॥

तुमि विद्या तुमि धर्म
तुमि हृदि तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणाः शरीरॆ
बाहुतॆ तुमि मा शक्ति
हृदयॆ तुमि मा भक्ति
तॊमारयि प्रतिमा गडि मन्दिरॆ मन्दिरॆ मातरम् ॥३॥

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी नमामि त्वाम्
नमामि कमलाम् अमलाम् अतुलाम्
सुजलाम् सुफलाम् मातरम् ॥४॥

श्यामलाम् सरलाम् सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीम् भरणीम् मातरम् ॥५॥

Translation to English by Aurobindo Ghosh
Mother, I bow to thee!
Rich with thy hurrying streams,
bright with orchard gleams,
Cool with thy winds of delight,
Dark fields waving Mother of might,
Mother free.

Glory of moonlight dreams,
Over thy branches and lordly streams,
Clad in thy blossoming trees,
Mother, giver of ease
Laughing low and sweet!
Mother I kiss thy feet,
Speaker sweet and low!
Mother, to thee I bow.

Who hath said thou art weak in thy lands
When the sword flesh out in the seventy million hands
And seventy million voices roar
Thy dreadful name from shore to shore?
With many strengths who art mighty and stored,
To thee I call Mother and Lord!
Though who savest, arise and save!
To her I cry who ever her foeman drove
Back from plain and Sea
And shook herself free.

Thou art wisdom, thou art law,
Thou art heart, our soul, our breath
Though art love divine, the awe
In our hearts that conquers death.
Thine the strength that nervs the arm,
Thine the beauty, thine the charm.
Every image made divine
In our temples is but thine.

Thou art Durga, Lady and Queen,
With her hands that strike and her
swords of sheen,
Thou art Lakshmi lotus-throned,
And the Muse a hundred-toned,
Pure and perfect without peer,
Mother lend thine ear,
Rich with thy hurrying streams,
Bright with thy orchard gleems,
Dark of hue O candid-fair

In thy soul, with jewelled hair
And thy glorious smile divine,
Lovilest of all earthly lands,
Showering wealth from well-stored hands!
Mother, mother mine!
Mother sweet, I bow to thee,
Mother great and free!

शिव मानसपूजा | Lyrics of ShivmanasPuja

रत्नैर्कल्पितमासनं हिमजलैर्स्नानं च दिव्याम्बरं
नानारत्न विभूषितं मृगमदा मॊदाङ्कितं चन्दनम् ।
जाजीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं दॆव दयानिधॆ पशुपतॆ हृत्कल्पितं गृह्यताम् ॥१॥

सौवर्णॆ नवरत्नखण्डखचितॆ पात्रॆ घृतं पायसं
भक्ष्यं पञ्चविधं पयॊदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूर खण्डॊज्ज्चलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभॊ स्वीकुरु ॥२॥

छत्रं चामरयॊर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं
वीणा भॆरि मृदङ्ग काहलकला गीतं च नृत्यं तथा ।
साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधैर्येतत् समस्तं मया
सङ्कल्पॆन समर्पितं तव विभॊ पूजांगृहाण प्रभॊ ॥३॥

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं
पूजा तॆ विषयॊपभॊगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ।
सञ्चारः पदयॊः प्रदक्षिणविधिः स्तॊत्राणि सर्वा गिरॊ
यद्यत्कर्म करॊमि तत्तदखिलं शम्भॊ तवाराधनम् ॥४॥

कर चरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवण नयनजं वा मानसं वापराधम् ।
विहितमविहितं वा सर्वमॆतत् क्षमस्व
जय जय करुणाब्धॆ श्री महादॆव शम्भॊ ॥५॥

भज गॊविन्दं | Lyrics for Bhaj Givindam/ CharpatPanjarika

भज गॊविन्दं

भज गॊविन्दं भज गॊविन्दं गॊविन्दं भज मूढमतॆ ।
सम्प्राप्तॆ सन्निहितॆ कालॆ नहि नहि रक्षति डुक्रिङ्करणॆ ॥१॥

मूढ जहीहि धनागमतृष्णां कुरु सद्बुद्धिम् मनसि वितृष्णाम् ।
यल्लभसॆ निजकर्मॊपात्तं वित्तं तॆन विनॊदय चित्तम् ॥२॥

नारीस्तनभर नाभीदॆशं दृष्ट्वा मा गा मॊहावॆशम् ।
ऎतन्मांसवसादि विकारं मनसि विचिन्तया वारंवारम् ॥३॥

नलिनीदलगतजलमतितरलं तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् ।
विद्धिव्याध्यभिमानग्रस्तं लॊकं शॊकहतं च समस्तम् ॥४॥

यावद्वित्तॊपार्जनसक्तः तावन्निजपरिवारॊरक्तः ।
पश्चाज्जीवति जर्जरदॆहॆ वार्तां कॊ‌Sपि न पृच्छति गॆहॆ ॥५॥

यावत्पवनॊ निवसति दॆहॆ तावत्पृच्छति कुशलं गॆहॆ ।
गतवति वायौ दॆहापायॆ भार्या बिभ्यति तस्मिन् कायॆ ॥६॥

बालस्तावत् क्रीडासक्तः तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।
वृद्धस्तावत् चिन्तामग्नः परमॆ ब्रह्मणि कॊ‌Sपि न लग्नः ॥७॥

का तॆ कान्ता कस्तॆ पुत्रः संसारॊ‌Sयमतीव विचित्रः ।
कस्य त्वं वा कुत आयातः तत्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥८॥

सत्सङ्गत्वॆ निस्सङ्गत्वं निस्सङ्गत्वॆ निर्मॊहत्वम् ।
निर्मॊहत्वॆ निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वॆ जीवन्मुक्तिः ॥९॥

वयसि गतॆ कः कामविकारः शुष्कॆ नीरॆ कः कासारः ।
क्षीणॆ वित्तॆ कः परिवारः ज्ञातॆ तत्त्वॆ कः संसारः ॥१०॥

मा कुरु धनजन यौवन गर्वं हरति निमॆषात् कालः सर्वम् ।
मायामयमिदम् अखिलं हित्वा ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥११॥

दिनयामिन्यौ सायंप्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ॥१२॥

द्वादश मञ्जरिकाभिर शॆषः कथितॊ वैयाकरणस्यैषः ।
उपदॆशॊ भूद्विद्या निपुणैः श्रीमच्छङ्करभगवच्छरणैः ॥१३॥

का तॆ कान्ता धन गत चिन्तावातुल किं तव नास्ति नियन्ता ।
त्रिजगति सज्जन सङ्गतिरॆका भवति भवार्णव तरणॆ नौका ॥१४॥

जटिलॊ मुण्डी लुञ्जित कॆशः काषायान्बर बहुकृत वॆषः ।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदर निमित्तं बहुकृत वॆषः ॥१५॥

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् ।
वृद्धॊ याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम् ॥१६॥

अग्रॆ वह्निः पृष्ठॆ भानुः रात्रौ चुबुक समर्पित जानुः ।
करतल भिक्षस्-तरुतल वासः तदपि न मुञ्चत्याशा पाशः ॥१७॥

कुरुतॆ गङ्गा सागर गमनं व्रत परिपालनम् अथवा दानम् ।
ज्ञान विहीनः सर्वमतॆन भजति न मुक्तिं जन्म शतॆन ॥१८॥

सुरमन्दिर तरुमूल निवासः शय्या भूतलम् अजिनं वासः ।
सर्व परिग्रह भॊगत्यागः कस्य सुखं न करॊति विरागः ॥१९॥

यॊगरतॊ वा भॊगरतॊ वा सङ्गरतॊ वा सङ्गविहीनः ।
यस्य ब्रह्मणि रमतॆ चित्तं नन्दति नन्दति नन्दत्यॆव ॥२०॥

भगवद्गीता किञ्चिदधीता गङ्गा जललव कणिका पीता ।
सकृदपि यॆन मुरारी समर्चा क्रियतॆ तस्य यमॆन न चर्चा ॥२१॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरॆ शयनम् ।
इह संसारॆ बहु दुस्तारॆ कृपया‌पारॆ पाहि मुरारॆ ॥२२॥

रथ्या चर्पट विरचित कन्थः पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः ।
यॊगी यॊग नियॊजित चित्तः रमतॆ बालॊन्मत्तवदॆव ॥२३॥

कस्त्वं कॊ‌Sहं कुत आयातः का मॆ जननी कॊ मॆ तातः ।
इति परिभावय निज संसारं सर्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ॥२४॥

त्वयि मयि सर्वत्रैकॊ विष्णुः व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः ।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥२५॥

शत्रौ मित्रॆ पुत्रॆ बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रह सन्धौ ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रॊत्-सृज भॆदाज्ञानम् ॥२६॥

कामं क्रॊधं लॊभं मॊहं त्यक्त्वा‌Sत्मानं पश्यति सॊ‌Sहम् ।
आत्मज्ञ्नान विहीना मूढाः तॆ पच्यन्तॆ नरक निगूढाः ॥२७ ॥

गॆयं गीता नाम सहस्रं ध्यॆयं श्रीपति रूपम् अजस्रम् ।
नॆयं सज्जन सङ्गॆ चित्तं दॆयं दीनजनाय च वित्तम् ॥२८॥

सुखतः क्रियतॆ रामाभॊगः पश्चाद्धन्त शरीरॆ रॊगः ।
यद्यपि लॊकॆ मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥२९ ॥

अर्थमनर्थं भावय नित्यं नास्ति ततः सुख लॆशः सत्यम् ।
पुत्रादपि धनभाजां भीतिः सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥३०॥

प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवॆक विचारम् ।
जाप्यसमॆत समाधि विधानं कुर्व वधानं महद्-अवधानम् ॥३१॥

गुरु चरणाम्भुज निर्भरभक्तः संसाराद्-अचिराद्-भव मुक्तः ।
सॆन्दिय मानस नियमादॆवं द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं दॆवम् ॥३२॥

मूढः कश्चिन वैयाकरणॊ डुकृण्करणाध्ययन धुरीणः ।
श्रीमच्छङ्कर भगवच्चिष्यैः बॊधित आसीच्छॊदित करणैः ॥३३॥

।। नवग्रहस्तोत्रम् ।। Lyrics of Navgrahstotram

ॐ जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम् ।
तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ।।१ ।।

दधि-शंख-तुषाराभं क्षीरोदार्णवसंभवम् ।
नमामि शशिनं सोमं शम्भोर्मुकुटभूषणम् ।।२ ।।

धरणीगर्भसंभूतं विद्युत्कांतिसमप्रभम् ।
कुमारं शक्तिहस्तं च मङ्गलं प्रणमाम्यहम् ।।३ ।।

प्रियङ्गुलिकाश्यामं रूपेणाप्रतिमं बुधम् ।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम् ।।४ ।।

देवानां चा ऋषीणां च गुरूं काञ्चनसंन्निभम् ।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम् ।।५ ।।

हिमकुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं गुरूम् ।
सर्वशास्त्रप्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम् ।।६ ।।

नीलाञ्जनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम् ।
छायामार्तण्डसंभूतं तं नमामि शनैश्चरम् ।।७ ।।

अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम् ।
सिंहिकागर्भसंभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम् ।।८ ।।

पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम् ।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम् ।।९ ।।

इति व्यासमुखोद्गीतं य: पठेत्सुसमाहित: ।।
दिवा वा यदि वा रात्रौ विघ्नशान्तिभविश्यति ।।१० ।।

नरनारीनृपाणां च भवेत् दु:स्वप्ननाशनम् ।।
ऐश्वर्यमतुलं तेषामारोग्यं पुष्टिवर्धनम् ।।११ ।।

ग्रहनक्षत्रजा: पीडातस्कराग्निसमुद्भवा: ।।
ता: सर्वाः प्रशमं यान्ति व्यासो ब्रूते न संशय: ।।१२ ।।

इति श्रीव्यासविरचितं नवग्रहस्तोत्रं संपूर्णम् ।

।। संकटनाशनगणेशस्तोत्रम् ।। Lyrics of Sankatnashan GaneshStotram

श्रीगणेशाय नम: । नारद उवाच ।

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम् ।।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु:कामार्थसिद्धये ।।१ ।।

प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम् ।।
तृतीयं कृष्णपिङ्ाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम् ।।२ ।।

लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च ।।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम् ।।३ ।।

नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम् ।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम् ।।४ ।।

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं य: पठेन्नर: ।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं प्रभो ।।५ ।।

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान् मोक्षार्थी लभते गतिम् ।।६ ।।

जपेत् गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासै: फलं लभेत् ।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशय: ।।७ ।।

अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा य: समर्पयेत् ।
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादत: ।।८ ।।

इति श्री नारदपुराणे संकटविनाशनं श्रीगणपतिस्तोत्रं संपूर्णम् ।

।। श्रीअच्युताष्टकम् ।। Lyrics of Shri Achyutashtakam

।। श्रीहरि: ।।

।। श्रीअच्युताष्टकम् ।।

अच्युतं केशवं रामनारायणं
कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम् ।।
श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं
जानकीनायकं रामचंद्रं भजे ।।१ ।।

अच्युतं केशवं सत्यभामाधवं
माधवं श्रीधरं राधिकाराधितम्‌ ।।
इंदिरामंदिरं चेतसा सुंदरं
देवकीनंदनं नंदजं संदधे ।।२ ।।

विष्णवे जिष्णवे शंखिने चक्रिणे
रुक्मिणीरागिणे जानकीजानये ।।
बल्लवीवल्लभायार्चितायात्मने
कंसविध्वंसिने वंशिने ते नम: ।।३ ।।

कृष्णगोविंद हे रामनारायण
श्रीपते वासुदेवाजितश्रीनिधे ।।
अच्युतानंत हे माधवाधोक्षज
द्वारकानायक द्रौपदीरक्षक ।।४ ।।

राक्षसक्षोभित: सीतया शोभितो
दण्डकारण्यभूपुण्यताकारण: ।।
लक्ष्मणेनान्वितो वानरै: सेवितो
अगस्त्यसंपूजितो राघव: पातु माम् ।।५ ।।

धेनुकारिष्टकाऽनिष्टकृद्वेषिणा
केशिहा कंसहृद्वंशिकावादक: ।।
पूतनाकोपक: सूरजाखेलनो
बालगोपालक: पातु मां सर्वदा ।।६ ।।

विद्युदुद्योतवान्प्रस्फुरद्वाससं
प्रावृडंभोदवत्प्रोल्लसद्विग्रहम् ।।
वन्यया मालया शोभितोरस्थलं
लोहितांघ्रिद्वयं वारिजाक्षं भजे ।।७ ।।

कुंचितै: कुंतलै: भ्राजमानाननं
रत्नमौलिंलसत्कुंडलं गण्डयो: ।।
हारकेयूरकं कंकणप्रोज्वलं
किंकिणीमंजुलं श्यामलं तं भजे ।।८ ।।

अच्युतस्याष्टकं य: पठेदिष्टदं
प्रेमत: प्रत्यहं पूरष: सस्पृहम् ।।
वृत्तत: सुंदरं कर्तृविश्वंभर-
स्तस्य वश्यो हरिर्जायते सत्वरम् ।।९ ।।

इति श्रीमत् शंकराचार्यविरचितं श्रीअच्युताष्टकं संपूर्णम् ।

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम् ॥ Lyrics of ShriRamrakshaStotram

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम् ॥
अस्य श्रीरामरक्षास्त्रोत्रमंत्रस्य बुधकौशिकऋषिः
श्रीसीतारामचंद्रोदेवता अनुष्टुपछंदः सीताशक्तिः
श्रीमद्हनुमान कीलकम् श्रीरामचंन्द्रप्रीत्यर्थे जपेविनियोगः ।
॥ अथ ध्यानम् ॥
ध्यायेदाजानुबाहुम् धृतशरधनुष्यम् बद्धपद्मासनस्थम् ।
पीतंवासोवसानम् नवकमलदलस्पर्धीनेत्र प्रसन्नम् ॥
वामाङ्कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनम् नीरदाभम् ।
नानाऽलङ्कारदीप्तम् दधतमूर्जटामण्डनम् रामचंद्रम् ॥
इति ध्यानम् ।
चरितम् रघुनाथस्य शतकोटीप्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरम् पूसां महापातकनाशनम् ॥१॥
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामम् रामम् राजीवलोचनम् ।
जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डीतम् ॥२॥
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम् ।
स्वलीलया जगत् त्रातुं आविर्भूतमजं विभूम् ॥३॥
रामरक्षा पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीम् सर्वकामदाम् ।
शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः ॥४॥
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुतिः ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रवत्सलः ॥५॥
जिव्हाम् विद्यानिधिः पातु कण्ठम् भरतवन्दितः ।
स्कंधौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः ॥६॥
करौ सीतपतिः पातु हृदयम् जामदग्न्यजितः ।
मध्यं पातु खरध्वंसि नाभिम् जांबवदाश्रयः ॥७॥
सुग्रीवेशः कटिः पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः ।
ऊरुर्रघुत्तमः पातु रक्षः कुलविनाशकृत् ॥८॥
जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्घे दशमुखांतकः ।
पादौ बिभीषणः श्रीदः पातु रामोखिलं वपुः ॥९॥
एतां रामबलोपेतां रक्षायः सुकृति पठेत् ।
स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ॥१०॥
पातालभूतलव्योमचारिणः छद्मचारीणः ।
न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः ॥११॥
रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापैर्भुक्ति मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
जगत्जैत्रेकमंत्रेण राम्नानाऽभिरक्षितं ।
यः कण्ठे धारयेत् तस्य करस्था सर्वसिद्धयः ॥१३॥
वज्रपञ्जरनामेदं यो रामकवचं पठेत् ।
अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमङ्गलम् ॥१४॥
आदिष्टवान् यथा स्वप्ने रामरक्षामिमांहरः ।
तथालिखितवान् प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः ॥१५॥
आरामः कल्पवृक्षाणाम् विरामः सकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रिलोकानाम् रामः श्रीमान् सनत्प्रभुः ॥१६॥
तरुणौ रुपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबललौ ।
पुण्डरीक विशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥
फलमूलाशिनौ दांतौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥
शरण्यौ सर्वसत्वानाम् श्रेष्ठौ सर्व धनुष्यताम् ।
रक्षः कुलनिहन्तारौ त्रायेत्तां नो रघुत्तमौ ॥१९॥
आतसज्जधनुषा विषस्पृशावक्षया शुगनिषङ्गसङ्गिनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छ्ताम् ॥२०॥
सन्नद्धः कवची खड्‍गी चापबाणधरोयुवा ।
गच्छन् मनोरथोऽस्माकम् रामः पातु सलक्ष्मणः ॥२१॥
रामौ दाशरथिः शूरो लक्ष्मणोनुचरो बल ।
काकुत्‍स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघुत्तमो ॥२२॥
वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः ।
जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः ॥२३॥
इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशयः ॥२४॥
रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिष्येर्न ते संसारिणो नरः ॥२५॥
रामं लक्ष्मणपूर्वजंरघुवरं सीतापतिं सुन्दरम् ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकं ।
राजेन्द्रंसत्यसङ्घं दशरथतनयं शामलं शान्तमूर्तिम् ।
वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ॥२६॥
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥२७॥
श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥
श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥
माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः ।
स्वामी रामू मत्सखा रामचन्द्रः ।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।
नार्न्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥
दक्षिणे लक्ष्मणौ यस्य वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम् ॥३१॥
लोकाभिरामं रणरंगधिरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् ।
कारुण्यरुपम् करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धीमतां वरिष्ठं ।
वातात्मजं वानरयुथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥
कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरं ।
आरुह्य कविताशाकां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥३४॥
आपदामपहर्तारं दातारं सर्व संपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥३५॥
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम् ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ॥३६॥
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः ।
रामान्नस्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहम् ।
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥

॥ इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

॥ अथ पुरुषसूक्तम् ॥ Lyrics of Ath PurushSuktam

श्री गणेशाय नमः ॥ अथपुरुषसूक्तम् ॥ सहस्त्रशीर्षा षोळशनारायणः
पौरुषमानुष्टुभं त्रिष्टुबंतं ॥ अभिषेकेविनियोगः ॥
हरिः ॐ स॒हस्त्र॑शीर्षा॒पुरु॑षः सहस्त्रा॒क्षः स॒हस्त्र॑पात् ॥
सभूमिं॑वि॒श्वतो॑वृ॒त्वाऽत्य॑तिष्ठद्दशांगु॒लम् ॥ पुरु॑षए॒वेदंसर्वं॒यद्भू॒तंयच्च॒भव्य॑म् ॥
उ॒तामृ॑त॒त्वस्येशा॑नोयदन्ने॑नाति॒रोह॑ति ॥ ए॒तावा॑नस्यमहि॒मातो॒ज्यायां॑श्च॒पूरु॑षः ॥
पादोस्यविश्वाभू॒तानि॑त्रि॒पाद॑स्या॒मृतं॑दि॒वि ॥ त्रि॒पादू॒र्ध्वउदै॒त्पुरु॑षः॒पादो॑स्ये॒हाभ॑व॒त्पुनः॑ ॥
ततो॒विष्व॒ङ्‍व्य॑क्रामत्साशनानश॒नेअ॒भि ॥ तस्मा॑द्वि॒राळ॑जायतवि॒राजो॒अधि॒पूरु॑षः ॥
सजा॒तोअत्य॑रिच्यतप॒श्चाद्भूमि॒मथो॑पु॒रः ॥१॥
यत्पुरु॑षेणह॒विषा॑दे॒वाय॒ज्ञमत॑न्वत ॥ व॒सं॒तोअ॑स्यासी॒दज्य॑ग्री॒ष्मइ॒ध्मःश॒रद्ध॒विः ॥
तंय॒ज्ञंब॒र्हिषि॒प्रौक्ष॒न्पु॒रु॑षंजा॒तम॑ग्र॒तः ॥ तेन॑दे॒वाअ॑यजंतसा॒ध्याऋष॑यश्च॒ये ॥
तस्मा॑द्यज्ञात्स॑र्व॒हुतः॒संभृ॑तंपृषदा॒ज्यम् ॥ प॒शू॒न्तांश्च॑क्रेवाय॒व्या॑नार॒ण्यान् ग्रा॒म्याश्च॒ये ॥
तस्मा॑द्य॒ज्ञात्स॑र्व॒हुत॒ऋचः॒सामा॑निजज्ञिरे ॥ छंदां॑सिजज्ञिरे॒तस्मा॒द्यजु॒स्तस्मा॑दजायत॥
तस्मा॒दश्वा॑अजायंत॒येकेचो॑भ॒याद॑तः ॥ गावो॑हजज्ञिरे॒तस्मा॒त्तस्मा॒ज्जा॒ताअ॑जा॒वयः॑ ॥२॥
यत्पुरु॑षं॒व्य॒द॑धुःकति॒धाव्य॑कल्पयन् ॥ मुखं॒किम॑स्य॒कौबा॒हूकाऊ॒रूपादा॑उच्येते ॥
ब्रा॒ह्म॒णो॑ऽस्य॒मुख॑मासीद्बा॒हूरा॑ज॒न्यः॑कृ॒तः ॥ ऊ॒रूतद॑स्य॒यद्वैश्यः॑प॒द्भ्‍यांशू॒द्रोअ॑जायत ॥
चं॒द्रमा॒मन॑सोजा॒तश्चक्षोः॒सूर्यो॑अजायत ॥ मुखा॒दिंद्र॑श्चा॒ग्निश्च॑प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत ॥
नाभ्या॑आसीदं॒तरि॑क्षंशी॒र्ष्णोद्यौःसम॑वर्तत ॥ प॒द्भ्यांभूमि॒र्दिशः॒श्रोत्रा॒त्तथा॑लो॒काँअ॑कल्पयन् ॥
स॒प्तास्या॑सन्परि॒धय॒स्त्रिःस॒प्तस॒मिधः॑कृ॒ताः ॥ दे॒वायद्य॒ज्ञंत॑न्वा॒नाअब॑ध्न॒न्पुरु॑षंप॒शुम् ॥
य॒ज्ञेन॑य॒ज्ञम॑यजंतदे॒वास्तानि॒धर्मा॑णिप्रथ॒मान्या॑सन् ॥
तेह॒नाकं॑महि॒मानः॑सचंत॒यत्र॒पूर्वे॑सा॒ध्याःसंति॑दे॒वाः॥३॥
अतोदेवाइतिषण्णांकाण्वोमेधातिथिर्देवाविष्णुर्गायत्री ॥ अभिषेके विनियोगः ॥
ॐ अतो॑दे॒वाअ॑वंतुनो॒यतो॒विष्णु॑र्विचक्र॒मे ॥ पृ॒थि॒व्याःस॒प्तधाम॑भिः ॥
इ॒दंविष्णु॒र्विच॑क्रमेत्रे॒धानिद॑धेप॒दम् ॥ समू॑ळहमस्यपांसु॒रे ॥
त्रीणि॑प॒दाविच॑क्रमे॒विष्णु॑र्गो॒पाअदा॑भ्यः ॥अतो॒धर्मा॑णिधा॒रय॑न् ॥
विष्णोः॒कर्मा॑णिपश्यत॒यतो॑व्र॒तानि॑पस्प॒शे ॥ इंद्र॑स्य॒युज्यः॒सखा॑ ॥
तद्विष्णोः॑पर॒मंप॒दंसदा॑पश्यंतिसू॒रयः॑ ॥ दि॒वी॑व॒चक्षु॒रात॑तम् ॥
तद्विप्रा॑सोविप॒न्यवो॑जागृवांसः॒समिं॑धते ॥ विष्णो॒र्यत्प॑र॒मंप॒दम् ॥४॥
इति पुरुषसूक्तं विष्णुसूक्तं च ॥
दे॒वस्य॑त्वासवि॒तुःप्र॒सवे॒श्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑पू॒ष्णोहस्ता॑भ्याम॒ग्नेस्तेज॑सा॒सूर्य॑स्यवर्च॒सेंद्र॑स्येंद्रि॒येणा॒भिषिं॑चामि ॥
बलायश्रियैयशसेन्नाद्याय ॥ अमृताभिषेकोस्तु शांतिः पुष्टिस्तुष्टिश्चास्तु ॥ ॐ शांतिःशांतिःशांतिः॥

॥ इति पुरुषसूक्तं समाप्तम् ॥

॥ अथ श्रीगणपति अथर्वशीर्ष ॥ Lyrics of Ath GanapatiAtharvashirsh

॥ श्री गणेशाय नमः ॥

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रंपश्ये माक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरंगैस्तुष्टवांसस्तनू भिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥

ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध्श्रवा । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!!

हरिः ॐ नमस्ते गणपतये ॥

त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि । त्वमेव केवलं कर्ताऽसि ।
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि । त्वमेव केवलं हर्ताऽसि ।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि । त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ॥१॥

ऋतं वच्मि । सत्यं वच्मि । अव त्वं मां । अव वक्तारं ।
अव श्रोतारं । अव दातारं । अव धातारं । अवानूचानमवशिष्यं ॥२॥

अव पश्चात्तात् । अव पुरस्तात् । अवोत्तरातात् । अव दक्षिणात्तात् ।
अव चोर्ध्वात्तात् । अवा धरात्तात् । सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ॥३॥

त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः । त्वमानंदयस्त्वं ब्रह्ममयः ।
त्वं सच्चिदानंदाद्वितियोऽसि । त्वं प्रत्यक्षं ब्रम्हासि ।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते । सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति ।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति । सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ।
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः । त्वं चत्वारिवाक्पदानि । ॥५॥

त्वं गुणत्रयातीतः । त्वं देहत्रयातीतः । त्वं कालत्रयातीतः ।
त्वं मूलाधारस्थितोसि नित्यं । त्वं शक्तित्रयात्मकः ।
त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यं ।
त्वंब्रह्मास्त्वंविष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वंइंद्रस्त्वं अग्निस्त्वंवायुस्त्वं ।
सूर्यस्त्वंचन्द्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् ॥६॥

गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं । अनुस्वारः परतरः ।
अर्धेंदुलसितं तारेणऋद्धं । एतत्तव मनुस्वरुपं । गकारः पूर्वरुपं ।
अकारो मध्यमरुपं । अनुस्वारश्च्यांतरुपम् । बिन्दुरुत्तररुपं ।
नादःसंधानं स हिता संधिः । सैषा गणेशविद्या गणकऋषिः ।
निचृद्गायत्रीच्छंदः । गणपतिर्देवता । ॐ गॅं गणपतये नमः ॥७॥

एकदंताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि ।
तन्नो दंति प्रचोदयात् ॥८॥

एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणं ।
रदंच वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् ।
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससं ।
रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितं ।
भक्तानुकंपितं देवं जगत्कारणमच्युतम् ।
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥९॥

नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये ।
नमस्ते अस्तु लंबोदरायैकदंताय ।
विघ्ननाशिने शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमः ॥१०॥

एतदथर्वशीर्ष योऽधीते । स ब्रह्मभूयाय कल्पते ।
स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते । स पंचमहापापात् प्रमुच्यते ।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।
सायंप्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति । सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति ।
धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति । एदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयं ।
यो यदि मोहाद्दस्यति स पापीयान् भवति । सहस्त्रावर्तनात् ।
यं यं काममधिते तं तं अनेन साधयेत् ।।११॥ अनेन गणपतिमभिषिंचति ।स वाग्मी भवति ।
चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति । स विद्यावान् भवति ।
इत्यथर्वणवाक्यं । ब्रह्माद्यावरणं विद्यात् । न बिभेति कदाचनेति ।।१२॥
यो दूर्वांकुरैर्यजति । स वैश्रवणोपमोभवति । यो लाजैर्यजति ।
स यशोवान् भवति । स मेधावान् भवति ।यो मोदकसहस्त्रेण यजति ।
स वाञ्छितफलमवाप्नोति । यः साज्यसमिद्भिर्यजति ।
स सर्वं लभते । स सर्वं लभते । अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा ।
सूर्यवर्चस्वी भवति । सूर्यग्रहे महानद्यां । प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा ।
सिद्धमंत्रो भवति । महाविघ्नात्प्रमुच्यते । महादोषात्प्रमुच्यते ।
महापापात्प्रमुच्यते । स सर्वविद्भवति । स सर्व विद्भवति ।
य एवं वेद इत्युपनिषत् ।।१३॥

ॐ भद्रंकर्णेभिः शृणुयाम देवाः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यसेम देवहितं यदायुः ॥१॥
स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥२॥
स्वस्तिन इंद्रो वृद्धश्रवाःॐ सहनाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥

॥ ॐ शान्तिः शन्तिः शन्तिः ॥१३ ॥

श्रीविष्णुसहस्त्रनाम स्तोत्रम्‌ | Lyrics of ShriVishnusahashranamStotram


। श्री परमात्मने नमः ।
। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
अथ श्रीविष्णुसहस्त्रनाम स्तोत्रम्‌
यस्य स्मरणमात्रेन जन्मसंसारबन्धनात्‌ ।
विमुच्यते नमस्तमै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥

नमः समस्तभूतानां आदिभूताय भूभृते ।
अनेकरुपरुपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ॥

वैशम्पायन उवाच
श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः ।
युधिष्टिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ।१।

युधिष्टिर उवाच
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम्‌ ।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम्‌ ।२।

को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः ।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात्‌ ।३।

भीष्म उवाच
जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम्‌ ।
स्तुवन्नामसहस्त्रेण पुरुषः सततोत्थितः ।४।

तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम्‌ ।
ध्यायन्स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ।५।

अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।
लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत्‌ ।६।

ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम्‌ ।
लोकनाथं महद्‌भूतं सर्वभूतभवोद्भभवम्‌ ।७।

एष मे सर्वधर्माणां धर्माऽधिकतमो मतः ।
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ।८।

परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः ।
परमं यो महद्‌ब्रह्म परमं यः परायण्म्‌ ।९।

पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम्‌ ।
दैवतं देवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ।१०।

यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे ।
यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ।११।

तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते ।
विष्णोर्नामसहस्त्रं मे श्रॄणु पापभयापहम्‌ ।१२।

यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः ।
ॠषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ।१३।

ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्‌कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः ।१४।

पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः ।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ।१५।

योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।
नारसिंहवपुः श्रीमान्केशवः पुरुषोत्तमः ।१६।

सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः ।
सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ।१७।

स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ।१८।

अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ।१९।

अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम्‌ ।२०।

ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ।२१।

ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान्‌ ।२२।

सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ।२३।

अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युत ।
वृषाकपरिमेयत्मा सर्वयोगविनिःसृतः ।२४।

वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्मा सम्मितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ।२५।

रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः ।
अमृतः शाश्वतः स्थाणुर्वरारोहो महातपाः ।२६।

सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित्कविः ।२७।

लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माधक्षः कृताकृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ।२८।

भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ।२९।

उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरुर्जितः ।
अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ।३०।

वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।
अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ।३१।

महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः ।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक ।३२।

महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुध्दः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ।३३।

मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ।३४।

अमृत्युः सर्वदृक्‌ सिंहः सन्धाता सन्धिमान्स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रृतात्मा सुरारिहा ।३५।

गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्त्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ।३६।

अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान्न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्त्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्‌ ।३७।

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सम्प्रमर्दनः ।
अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः ।३८।

सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः ।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः ।३९।

असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ।४०।

वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः ।४१।

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः ।
नैकरुपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ।४२।

ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः ।४३।

अमृतांशूद्भवो भानुः शशविन्दुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः ।४४।

भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः ।
कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ।४५।

युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्योऽव्यक्तरुपश्च सहस्त्रजिदनन्तजित्‌ ।४६।

इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ।४७।

अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपां निधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ।४८।

स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ।४९।

अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ।५०।

पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत्‌ ।
महर्ध्दिर्‌ऋध्दो वृध्दात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ।५१।

अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान्समितिञ्जयः ।५२।

विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ।५३।

उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनोगुहः ।५४।

व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।
परर्ध्दिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ।५५।

रामो विरामो विरजो मार्गो नेयोऽनयः ।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ।५६।

वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ।५७।

ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ।५८।

विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम्‌ ।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ।५९।

अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयुपो महामखः ।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ।६०।

यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम्‌ ।६१।

सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत्‌ ।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ।६२।

स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत्‌ ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ।६३।

धर्मगुब्धर्मकृध्दर्मी सदसत्क्षरमक्षरम्‌ ।
अविज्ञाता सहस्त्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ।६४।

गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्‌गुरुः ।६५।

उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ।६६।

सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः ।६७।

जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः ।
अम्भोनिधिरनन्तामा महोदधिशयोऽन्तकः ।६८।

अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ।६९।

महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत्‌ ।७०।

महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी ।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ।७१।

वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणोऽच्युतः ।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ।७२।

भगवान्‌ भगहानन्दी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ।७३।

सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिविस्पृक्सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ।७४।

त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक्‌ ।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम्‌ ।७५।

शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।७६।

अनिवर्ती निवृत्तामा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ।७७।

श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः ।७८।

स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः ।
विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ।७९।

उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ।८०।

अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुध्दात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ।८१।

कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ।८२।

कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनंजयः ।८३।

ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्‌‍ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद्‌ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ।८४।

महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ।८५।

स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ।८६।

मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ।८७।

सद्‌गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ।८८।

भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः ।८९।

विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान्‌ ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ।९०।

एको नैकः सवः कः किं यत्पदमनुत्तमम्‌ ।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ।९१।

सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ।९२।

अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक्‌ ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ।९३।

तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश्रृङ्गो गदाग्रजः ।९४।

चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात्‌ ।९५।

समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ।९६।

शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ।९७।

उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः श्रृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ।९८।

सुवर्णविन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्र्दो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ।९९।

कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।
अमृताशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ।१००।

सुलभः सुव्रतः सिध्दः शत्रुजिच्छ्त्रुतापनः ।
न्यग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ।१०१।

सहस्त्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ।१०२।

अणुर्बृहत्कृशः स्थूलोगुणभृन्निर्गुणो महान्‌ ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्द्धनः ।१०३।

भारभृत्कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ।१०४।

धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियन्तानियमोऽयमः ।१०५।

सत्ववान्सात्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत्प्रीतिवर्धनः ।१०६।

विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ।१०७।

अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकदोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ।१०८।

सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरप्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ।१०९।

अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ।११०।

अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।१११।

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दु:स्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ।११२।

अनन्तरुपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।
चतुरस्त्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ।११३।

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः ।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ।११४।

आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ।११५।

प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः ।
तत्वं तत्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ।११६।

भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञॊ यज्ञोपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ।११७।

यज्ञभृद्यज्ञकृद्यज्ञी यज्ञभुग्यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृद्यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ।११८।

आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ।११९।

शङ्खभृन्नदकी चक्री शार्ङ्ग्धन्वा गदाधरः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ।१२०।

॥ सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति ॥
इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः ।
नाम्नां सहस्त्र दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम्‌ ।१२१।

य इदं श्रुणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत्‌ ।
नाशुभं प्राप्नुयात्किञ्चित्सोऽमुत्रेह च मानवः ।१२२।

वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत्‌ ।
वैश्यो धनसमृध्दः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात्‌ ।१२३।

धर्मार्थी प्राप्नुयाध्दर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात्‌ ।
कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी प्राप्नुयात्प्रजाम्‌ ।१२४।

भक्तिमान्यः सदोत्थाय शुचिस्तद्‌गतमानसः ।
सहस्त्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत्‌ ।१२५।

यशः प्राप्नोति विपुलं ज्ञातिप्राधान्यमेव च ।
अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम्‌ ।१२६।

न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति ।
भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरुपगुणान्वितः ।१२७।

रोगार्तो मुच्यते रोगाद्‌बध्दो मुच्येत्‌ बन्धनात्‌ ।
भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ।१२८।

दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम्‌ ।
स्तुवन्नाम सहस्त्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः ।१२९।

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः ।
सर्वपापविशुध्दात्मा याति ब्रह्म सनातनम्‌ ।१३०।

न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित्‌ ।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते ।१३१।

इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।
युज्येतात्मसुखक्षान्ति श्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः ।१३२।

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः ।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ।१३३।

द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः ।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ।१३४।

ससुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम्‌ ।
जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम्‌ ।१३५।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्वं तेजो बलं धृतिः ।
वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च ।१३६।

सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्पते ।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ।१३७।

ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः ।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम्‌ ।१३८।

योगोज्ञानं तथा सांख्यं विद्याः शिल्पादि कर्म च ।
वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात्‌ ।१३९।

एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः ।
त्रीँल्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ।१४०।

इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम्‌ ।
पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च ।१४१।

विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभवाप्ययम्‌ ।
भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम्‌ ।१४२।


ॐ तत्सदिति श्रीमहाभारते शतसाहस्त्रयां संहितायां
वैयासिक्यामानुशासनिके पर्वणि भीष्मयुधिष्ठिरसंवादे
श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्त्रनामस्तोत्रम्‌ संपूर्णं ॥

हरिः ॐ तस्तत्‌ हरिः ॐ तत्सत्‌ हरिः ॐ तत्सत्‌ ।